जयपुर। राजस्थान में विधानसभा चुनाव होने में 4 दिन ही बाकी है। राजस्थान में चुनावी लड़ाई भले ही कांग्रेस और बीजेपी के बीच हो, लेकिन कई छोटे दल खासा सक्रिय हैं। राजस्थान के चुनाव में कई सीटों पर छोटे राजनीतिक दलों के चलते त्रिकोणीय मुकाबला बन गया है। दरअसल, राजस्थान के चुनाव में राजस्थान में इस बार भी राजनीतिक दल खासा सक्रिय हैं और कई सीटों पर छोटे राजनीतिक दलों के चलते त्रिकोणीय मुकाबला बन गया है। आखिर राजस्थान में इस बार छोटे दल का राजस्थान में कैसे माहौल बनाते है, आइए जानते है।
2023 के विधानसभा चुनाव में 199 सीटों के लिए 1862 उम्मीदवार किस्मत आजमा रहे हैं। कांग्रेस 198 और बीजेपी के 199 प्रत्याशी मैदान में है। इसके अलावा 56 छोटे दल भी किस्मत आजमा रहे हैं, जिनमें बसपा से लेकर एआईएमआईएम तक शामिल हैं। इनमें बसपा के 185, आम आदमी पार्टी के 88, आरएलपी के 78, बीटीपी के 12, एएसपी के 47, बीएपी के 21, सीसीएस के 17, आरएलडी के 1, जेजेपी के 25 और 730 निर्दलीय उम्मीदवार मैदान में है। इन छोटे दलों के उतरने से कई सीटों पर बीजेपी और कांग्रेस की सियासी टेंशन बढ़ा दी है।
राजस्थान विधानसभा चुनाव में इस बार भी बसपा, आरएलपी, बीटीपी, बीएपी जैसे दल किंगमेकर बनने की कवायद में है। दरअरल, पिछले कई सालों से जिस तरह से राजस्थान में हर पांच साल पर सत्ता परिवर्तन का ट्रेंड है, उसके चलते छोटे दलों के रोल भी अहम हो जाते हैं। कांग्रेस को 2008 और 2018 में दोनों ही बार छोटे राजनीतिक दलों के दम पर सत्ता में चाबी मिलने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था। ऐसे में इस बार के चुनाव में देखने वाली बात होगी कि छोटे दलों के बड़े अरमान क्या पूरे होंगे?
राजस्थान में कितने दल हैं चुनावी मैदान में?
बता दें कि 2018 के राजस्थान विधानसभा चुनाव में बसपा, आरएलपी, बीटीपी, सीपीएम और आरएलडी जैसे छोटे दलों ने अपने प्रत्याशी चुनावी मैदान में उतरे थे। इन छोटे दलों ने 14 विधानसभा सीटें जीने में कामयाब रही थी, जिसमें सबसे ज्यादा बीजेपी ने 6, बीटीपी-आरएलपी 2-2 और सीपीएम-आरएलडी 1-1 सीटें जीती थी जबकि दो सीटें अन्य को मिली थी। इसी तरह से 2008 में भी छोटे दल अहम भूमिका में थे और उनके सहारे कांग्रेस सरकार बनाया था।
2018 में छोटे दल बने थे किंगमेकर…
2018 में कांग्रेस ने भले ही सबसे ज्यादा सीटें जरूर जीती थी, लेकिन बहुमत से एक सीट दूर रह गई थी। ऐसे में अशोक गहलोत इन तमाम छोटे दलों का समर्थन जुटाकर सत्ता के सिंहासन पर काबिज हुए थे। इतना ही नहीं पांच सालों तक गहलोत की कुर्सी पर भी संकट आया तो यही छोटे दल उनके मजबूत कंधा बने रहे। वो फिर चाहे 2020 में सचिन पायलट की बगावत रही हो या फिर 2022 में कांग्रेस शीर्ष नेतृत्व के द्वारा कवायद की गई। इससे भी छोटे दलों के बड़े सियासी गेम को राजस्थान की सियासत में समझा जा सकता है।
बसपा का दलित वोटबैंक पर जोर…
राजस्थान के विधानसभा चुनावों में बसपा का पूरा जोर दलित वोटबैंक पर है। प्रदेश में दलित समुदाय करीब 17 फीसदी है। बसपा इसी वोट के सहारे तीसरी ताकत राजस्थान में बनती रही है और एक बार फिर से दलित वोटों के सहारे किंगमेकर बनने की कोशिश में है। इसी तरह से आरएलपी का सियासी आधार जाट और किसान समुदाय के बीच है। शेखावटी और मेवाड़ के इलाके में आरएलपी ने खुद को मजबूत किया है और जाट सीएम का भी दांव खेल रही है। इसी तरह से आरएलडी और जेजेपी का भी आधार जाट वोटों के बीच ही है और उन्हीं के सहारे किंगमेकर बनने की जुगट में है।
सभी दलों की नजर आदिवासी क्षेत्र पर…
वहीं, बीटीपी और बीएपी जैसे दलों का आधार राजस्थान के आदिवासी बेल्ट पर है। पिछले चुनाव में बीटीपी ने दो सीटें जीतने में कामयाब रही है और एक बार फिर से चुनावी मैदान में उतरी है। बीएपी पहली बार किस्मत आजमा रही है, लेकिन आदिवासी क्षेत्रों में उसकी अपनी मजबूत पकड़ है। भील प्रदेश के नाम से अलग राज्य की डिमांड करके आदिवासी समुदाय का विश्वास जीतने का दांव चला है।
छोटे दल कांग्रेस-बीजेपी को दे रहे टक्कर…
राजस्थान विधानसभा चुनाव में छोटी पार्टियों के उतरने से करीब तीन दर्जन से ज्यादा सीटों पर त्रिकोणीय मुकाबला है तो करीब एक दर्जन सीटों पर कांग्रेस-बीजेपी को सीधे टक्कर दे रहे हैं। बसपा का पूर्वी राजस्थान में दबदबा है, तो आरएलपी का पश्चिमी राजस्थान और शेखावाटी में दबदबा है। दक्षिण राजस्थान के उदयपुर जैसे इलाके में बीटीपी और बीएपी कई सीटों पर त्रिकोणीय मुकाबला बना रही है। दिल्ली और पंजाब में सरकार बनने के बाद आम आदमी पार्टी राजस्थान चुनाव में अपने प्रत्याशी उतारे हैं, लेकिन उस तरह से फोकस नहीं किया, जैसे गुजरात और मध्य प्रदेश में किया है।