जयपुर। ओडिशा के पुरी में विश्व प्रसिद्ध जगन्नाथ यात्रा शुरू हो चुकी है। तीन महीने तक चलने वाले रथ यात्रा की शुरूआत मंगलवार को जगन्नाथ मंदिर के मुख्य द्वार से हुई। रथ यात्रा में सबसे आगे भगवान बलभद्र का तालध्वज रथ, उनके पीछे देवी सुभद्रा का दर्पदलन रथ और आखिरी में भगवान जगन्नाथ का रथ नंदीघोष चल रहा है। पहले दिन रथ यात्रा में करीब 25 लाख लोग शामिल हुए, जिन्होंने रस्सियों के जरिए भगवान के रथों को खींचा। रथ यात्रा से पहले दिन सुबह मंगला आरती के बाद भगवान को खिचड़े का भोग लगाया गया। लेकिन, क्या आपको पता है कि भगवान जगन्नाथ जी को पहला भोग खीचड़े का ही क्यों लगाया जाता है? दरअसल, इसके पीछे की कहानी राजस्थान से जुड़ी हुई है।
ऐसी मान्यता है कि आज से ठीक 295 साल पहले एक 13 साल की भक्त की पुकार सुनकर भगवान का सिंहासन डोल गया था और कृष्णजी को साक्षात प्रकट होकर खीचड़ा खाने आ गए थे। यही वजह है कि आज भी भगवान जन्नाथ जी को पहला भोग खीचड़े का ही लगाया जाता है। करमा बाई को मारवाड़ की मीरा भी कहा जाता है। जब-जब भगवान कृष्ण का जिक्र आता है, करमा का नाम भी आ ही जाता है।
ये है धार्मिक मान्यता-जब भगवान ने मानीं 13 साल की बच्ची की जिद
भक्त शिरोमणि करमा बाई का जन्म राजस्थान के नागौर जिले के कालवा गांव में साल 1615 में जीवणजी डूडी के घर हुआ था। वह बचपन से ही भक्तिभाव में डूबी रहती थी। उनके घर में भी रोजाना भगवान को भोग लगाया जाता था। लेकिन, जब वो 13 साल की हुई तो उनके माता-पिता एक बार बेटी को भगवान को भोग लगाने की जिम्मेदारी सौंपकर पुष्कर चले गए। इसके बाद करमा ने सुबह बाजरे का खिचड़ा बनाया और भगवान की मूर्ति के आगे रख दिया। उसने भगवान से प्रार्थना की कि मुझे घर में और भी काम है, आप भोग ले लेना। लेकिन, जब वो वापस आई तो देखा कि भगवान ने भोग नहीं लिया और थाली खीचड़े से भरी हुई है।
काफी देर होने के बाद भी जब भगवान ने भोग नहीं लगाया तो उसने खीचड़े में और गुड़ व घी मिलाया और वहीं बैठ गई। लेकिन फिर भी भगवान ने भोग नहीं खाया। आखिरकार, करमा ने ठान लिया कि जब तक भगवान भोग नहीं लेंगे, वो भी कुछ नहीं खाएगी। सुबह से शाम तक ऐसा ही चलता रहा। आखिरकार, 13 साल की बच्ची की जिद के आगे भगवान को साक्षात प्रकट होना पड़ा। भगवान ने कहा कि तुमनें पर्दा नहीं किया, इस कारण भोग नहीं खाया। लेकिन, जैसे ही करमा ने ओढ़नी की ओट की तो भगवान ने खीचड़े से भरी पूरी थाली खाली कर दी। इसके बाद भगवान रोजाना भोग खाने के लिए साक्षात प्रकट होने लगे।
सच्चाई जान माता-पिता भी चौंक गए
कुछ दिनों बाद जब करमा के माता-पिता घर आए तो देखा कि गुड़ से भरा मटका खाली है। इस पर बेटी ने कहा कि वो खीचड़े में गुड़ ज्यादा डालती थी, क्योंकि भगवान रोजाना खिचड़ा खाने आते है। इस पर माता-पिता घबरा गए। करमा ने कहा कि अगर यकीन नहीं है तो सुबह देख लेना कि भगवान भोग खाने आते है। उसने दूसरे दिन करमा ने बनाया और थाली मंदिर में रख दी। भक्त की पुकार सुनकर भगवान का सिंहासन डोल गया और कृष्ण खीचड़ा खाने आ गए।
यह दृश्य देखकर माता-पिता भी चौंक गए और उसी दिन से करमा बाई जगत में विख्यात हो गई। हालांकि, जीवन के अंतिम दिनों में करमा बाई भगवान जगन्नाथ की नगरी चली गई और वहीं रहने लगीं। वहां रोज भगवान को खीचड़े का भोग लगातीं और भगवान उनके हाथ से खिचड़ा खाने आते। आज भी भगवान जगन्नाथ को खीचड़े का ही भोग लगाया जाता है। 88 साल की उम्र में 30 नवंबर 1702 को करमा बाई ने जगन्नाथ पुरी मंदिर में ही शरीर त्याग दिया।
जगन्नाथ पुरी मंदिर में होती है करमा बाई की पूजा
राजस्थान ही नहीं पुरी के जगन्नाथ मंदिर में भी भगवान कृष्ण के साथ-साथ भक्त शिरोमणि करमा बाई की पूजा होती है। पूरी जगन्नाथ मंदिर और राजस्थान के कालवा गांव में करमा बाई का मंदिर बना हुआ है। जहां रोजाना करमा बाई की पूजा-अर्चना की जाती है। पूरी के मंदिर में बनी एक रसोई का नाम भी करमा है। जिसमें रोज भगवान के लिए खीचड़ा तैयार होता है। भगवान जगन्नाथ के साथ-साथ करमा भी खिचड़े का भोग लगाया जाता है। को लगाया जाता है। पुरी के जगन्नाथ मंदिर में सात मूर्तियां हैं। जिनमें से पांच मूर्तियां भगवान श्रीकृष्ण के परिवार की हैं और एक करमा बाई की है। इतना ही नहीं जब भी पुरी में भगवान जगन्नाथ की रथयात्रा निकलती है तो करमा बाई की प्रतिमा भी रहती है।
ये भजन है करमा बाई की भक्ति का प्रतीक
करमा बाई पर राजस्थानी फिल्म भी बन चुकी है। इसके अलावा करमा बाई की भक्ति की कहानी को लोकप्रिय टीवी सीरियल विघ्नहर्ता गणेश में भी दिखाया गया था। ‘थाळी भरके ल्याई रे खीचड़ो, ऊपर घी की बाटकी। जीमो म्हारा श्याम धणी, जीमावै बेटी जाट की…’ भजन करमा बाई की भक्ति का प्रतीक है। यह राजस्थानी भजन आपको सत्संग व जागरणों में अक्सर सुनने को मिलता है।
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