पंकज सोनी, जयपुर। राजस्थान के विश्वप्रसिद्ध श्रीनाथजी मंदिर विश्वभर में अपनी एक अलग छवि रखता है। हर साल लाखों-करोड़ों लोग श्रीनाथजी के दर्शन के लिए नाथद्वारा आते हैं। साथ ही यहां की अद्भुत परम्पराओं को देखने भी आते हैं। ऐसी ही एक परंपरा है, धुलंडी (होली) पर निकलने वाली बादशाह की सवारी। राजस्थान में धुलंडी मंगलवार को मनाई गई। इसी दिन यह सवारी भी निकली। आइए आपको बताते हैं क्या है ये परंपरा
होली पर निकलती है बादशाह की सवारी
मेवाड़ के चार धामों में शामिल श्रीजी की नगरी नाथद्वारा में हर साल धुलंडी (होली) पर एक सवारी निकलती है, जिसे ‘बादशाह की सवारी’ कहा जाता है कि यह सवारी धुलंडी के दिन शाम 6 बजे नाथद्वारा के गुर्जरपुरा मोहल्ले के बादशाह गली से निकलती है।यह एक प्राचीन परंपरा है, जिसमें एक व्यक्ति को नकली दाढ़ी-मूंछ, मुगल पोशाक और आंखों में काजल लगाकर दोनों हाथों में श्रीनाथजी की छवि देकर उसे पालकी में बैठाया जाता है. इस सवारी की अगवानी मंदिर मंडल का बैंड बांसुरी बजाते हुए करता है। यह सवारी गुर्जरपुरा से होते हुए बड़ा बाज़ार से आगे निकलती है, तब बृजवासी पालकी में सवार बादशाह को गालियां देते है।सवारी मंदिर की परिक्रमा लगाकर श्रीनाथजी के मंदिर पहुंचती है, जहां वह बादशाह अपनी दाढ़ी से सूरजपोल की नवधाभक्ति के भाव से बनी नो सीढियां साफ करता है, जो कि लंबे समय से चली आ रही एक प्रथा है। उसके बाद मंदिर के परछना विभाग का मुखिया बादशाह को पैरावणी (कपड़े, आभूषण आदि) भेंट करते है. इसके बाद फिर से गालियों का दौर शुरू होता है। मंदिर में मौजूद लोग बादशाह को खरी-खोटी सुनते है और रसिया गान शुरू होता है।
क्या है इस परंपरा के पीछे का रहस्य ?
यह परंपरा वर्षों से चली आ रही है, कहा जाता है कि जब औरंगजेब मंदिरों में भगवान की मूर्तियों को खंडित करता हुआ मेवाड़ पहुंचा तो श्रीनाथजी के विग्रह को खंडित करने की मंशा से जब वह मंदिर में गया तो मंदिर में प्रवेश करते ही उसकी आंखों की रोशनी चली गयी, उस वक्त उसकी बेगम ने भगवान श्रीनाथजी से प्रार्थना कर माफी मांगी तब उसकी आंखें ठीक हो गयी। पश्चाताप स्वरूप बादशाह को अपनी दाढ़ी से मंदिर की सीढ़ियों पर गिरी गुलाल को साफ करने के लिए बेगम ने कहा, तब बादशाह ने अपनी दाढ़ी से सूरजपोल के बाहर की नौ सीढ़ियों को उल्टे उतरते हुए साफ किया और तभी से इस घटना को एक परम्परा के रूप में मनाया जाता रहा है। उसके बाद बादशाह की मां ने एक बेशकीमती हीरा मंदिर को भेंट किया जिसे आज भी श्रीनाथजी के दाढ़ी में लगा देखते है।मेवाड़ के इतिहासकार श्रीकृष्ण जुगनू बताते है कि यह परंपरा मुगलों के समय से चली आ रही है। आज भी कायम है।