Rajasthan Assembly Election 2023: राजस्थान में विधानसभा चुनावों के नजदीक आने के साथ ही राजनीतिक दल जनता की नब्ज टटोलने में जुट गए हैं जहां बीजेपी और कांग्रेस दोनों ही दलों में अभी टिकटों को लेकर गहमागहमी चल रही है. इस बीच 2018 के चुनावी नतीजों के आधार पर 2023 की संभावनाओं के कयास लगाए जाने भी शुरू हो गए हैं. आंकड़ों के लिहाज से देखें तो राजस्थान में 2018 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस की जीत में दलित समुदाय के एक बड़ा फैक्टर बनकर उभरा था.
मालूम हो कि दलित वोटबैंक को लंबे समय से कांग्रेस पार्टी का मुख्य वोट बैंक माना जाता रहा है. राज्य की आबादी में अनुसूचित जाति (एससी) की हिस्सेदारी 17.83% है.
2013 में कांग्रेस पर मेहरबान था दलित वोटबैंक
बता दें कि दलित वोटबैंक कांग्रेस के लिए एक राहत की तरह आय़ा था क्योंकि 2013 के विधानसभा चुनावों में, समुदाय के मतदाताओं ने बड़े पैमाने पर बीजेपी को वोट दिया था, जिससे राजस्थान में 34 एससी-आरक्षित सीटों में से 32 पर बीजेपी ने जीत हासिल की थी. वहीं उन चुनावों में 200 सीटों में से बीजेपी ने 163 सीटें जीती थीं और कांग्रेस की 21 पर सिमट कर रह गई थी.
वहीं 2018 के चुनावों में, कांग्रेस ने एससी-आरक्षित 34 सीटों में से 19 सीटें जीती थी और बीजेपी ने इनमें से 12 सीटों पर जीत हासिल की थी. इसके अलावा राष्ट्रीय लोकतांत्रिक पार्टी (आरएलपी) को दो सीटें और एक सीट पर निर्दलीय का कब्जा हुआ था.
दलित समुदाय कांग्रेस की उम्मीद!
वहीं अब आगामी विधानसभा चुनावों में, जहां कांग्रेस को अपने 2018 के प्रदर्शन को दोहराने और अधिकांश एससी सीटें जीतने की उम्मीद है, वहीं बीजेपी राज्य में बढ़ते दलित उत्पीड़न का मुद्दा लगातार उठा रही है. इससे पहले गहलोत सरकार ने अपना मूल वोट बैंक को बनाए रखने के लिए कई अहम फैसले किए हैं.
जहां पिछले साल सरकार ने विधानसभा में राजस्थान राज्य अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति विकास निधि (वित्तीय संसाधनों का नियोजन, आवंटन और उपयोग) विधेयक, 2022 पारित किया था. इस कानून के मुताबिक अनुसूचित जाति विकास फंड (एससीडीएफ) और अनुसूचित जनजाति विकास फंड बनाया जाएगा.
बसपा से टूटे दलित वोटर्स!
वहीं 2018 में 4 फीसदी वोट पाने और 6 सीटें जीतने वाली बहुजन समाज पार्टी (बसपा) को अपने समर्थकों के बीच विश्वसनीयता की चुनौती का सामना करना पड़ रहा है जहां बीते कुछ सालों में कई बसपा मतदाताओं का पार्टी से मोहभंग हो गया है जहां 2008 और 2018 में बसपा से जीते विधायक कांग्रेस में चले गए थे.
बसपा के सिकुड़ते जनाधार का मतलब है कि दलित मतदाता मुख्य रूप से दो मुख्य पार्टियों, कांग्रेस और बीजेपी को वोट दे सकते हैं. वहीं 2018 में, आरक्षित सीटों पर बीजेपी का खराब प्रदर्शन उन जगहों पर विशेष रूप से उल्लेखनीय था जहां राज्य में 2 अप्रैल, 2018 के भारत बंद के दौरान और उसके बाद हिंसा देखी गई थी.