कवि रामधारी सिंह दिनकर की रचना के ये अंश घर से लेकर राष्ट्र निर्माण में श्रमिकों की भूमिका के महत्व को बताते हैं। धरा पर स्वर्ग की कल्पना को साकार करने वाले मेहनतकश हाथों के संघर्ष की कहानी को कहते हैंं। आज उसी संघर्ष को याद करने का दिन है। एक मई, यानी अंतरराष्ट्रीय मजदूर दिवस.. ऐसा दिन जब श्रमिक की मेहनत को याद किया जाता है। एक दिन के लिए ही सही पर माना जाता है कि हमारे आस पास मौजूद लाखों ऐसे लोग हैं जो हमारे जीवन को बेहतर और सुकुन भरा बनाने के लिए जी- तोड़ मेहनत करते हैं, बदले में वो हमसे पाते हैं अपनी मेहनत का मेहनताना।
बावजूद इसके यह भी सच है कि इस श्रमिक वर्ग के किसी भव्य निर्माण की बात तो दूर उसकी नींव की कल्पना करना भी बेमानी है। एक मई को श्रमिकों के समर्पण के सम्मान में श्रमिक दिवस मनाया जाता है। इस श्रमिक दिवस के पीछे छिपी कहानी भी बहुत भावपूर्ण है। यह कहानी शुरू होती है साल 1877 से। तब मजदूरों ने अपने काम के घंटे तय करने की अपनी मांग को लेकर एक आंदोलन शुरू किया। जिसके बाद एक मई 1886 को पूरे अमेरिका में लाखों मजदूरों ने एकजुट होकर इस मुद्दे को लेकर हड़ताल की।
इस हड़ताल में लगभग 11 हजार फैक्ट्रियों के 3 लाख 80 हजार मजदूर शामिल हुए। इस हड़ताल के बाद साल 1889 में पेरिस में आयोजित एक अंतरराष्ट्रीय महासभा की दूसरी बैठक में फ्रेंच क्रांति को ध्यान में रखते हुए एक प्रस्ताव पास किया गया। इस प्रस्ताव में अंतरराष्ट्रीय मजदूर दिवस मनाए जाने की बात स्वीकार की गई। इस प्रस्ताव के पास होते ही अमेरिका में सिर्फ 8 घंटे काम करने की इजाजत दे दी गई। कहा जाता है कि इस हड़ताल के दौरान शिकागो की हेय मार्केट में बम ब्लास्ट हुआ, जिससे निपटने के लिए पुलिस ने मजदूरों पर गोली चला दी जिसमें सात मजदूरों की मौत हो गई थी।
नसीब में झोपड़पट्टी और कच्ची बस्ती
शहरों की तरह हो रहे पलायन के बाद स्थिति कितनी अच्छी है, यह कच्ची बस्ती जैसे इलाकों में देखा जा सकता है। महानगरों की चकाचौंध के बीच झोपड़पट्टी बस्तियों की संख्या तेजी से बढ़ती जा रही है। यह रहने वाला मजदूर वर्ग विषम हालातों जीवन व्यापन करने को मजबूर है। खाने से लेकर पीने का पानी उनके लिए दुविधा का कारण बना हुआ है। यह बात भी सच है कि इन बस्तियों की जरूरत केवल चुनावों के समय ही पड़ती है या कहें तो इनकी याद मतदान से ठीक पहले आती है। उसके बाद प्रयास होते हैं तो वे ऊंट के मुंह में जीरा साबित होते हैं।
मनरेगा है गांवों के लिए आय का विकल्प श्रमिक वर्ग के विकास के लिए महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना देश में शुरू की गई है, यह ऐसी योजना है जिसे दुनिया का सबसे बड़ा कार्य गारंटी कार्यक्रम भी कहा जाता है, वह ग्रामीणों को अकुशल शारीरिक कार्य करने की गारंटी देता है। हर वित्तीय वर्ष में ग्रामीण परिवार का वयस्क सदस्य 100 दिन काम कर सकता है और इसके एवज में उसे तय दिहाड़ी दी जाती है। यह बात अलग है कि मनरेगा योजना भी राजनीति से अछूती नहीं रही है। ग्रामीण इलाकों में काम की कमी मनरेगा को एक बेहतर विकल्प बनाती है। यह ग्रामीणों के लिए आय का एक जरिया साबित होती है। अगर सरकारी आंकड़ों की मानें तो मनरेगा योजना से जुड़े हुए कामकाजी मजदूरों की संख्या लगभग 14.96 करोड़ है। इस योजना को परिवारों को गरीबी से निकालने और महिला और शोषित वर्गों को सशक्त करने का श्रेय दिया जाता है। आंकड़े बताते हैं कि किस राज्य के ग्रामीण इलाकों में बेरोजगारी की दर सबसे अधिक है।
हाल ही में बढ़ी है मजदूरों की दिहाड़ी
अब बात करते हैं सरकारी प्रयास और नए बदलाव की। महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार अधिनियम (मनरेगा) के तहत अगले वित्त वर्ष 2023-24 में दिहाड़ी बढ़ाने के लिए भारत सरकार ने अधिसूचना जारी की दी है। केंद्र सरकार की ओर से जारी अधिसूचना के तहत मनरेगा मजदूरों के वेतन में सात रुपये से लेकर 26 रुपये तक की बढ़ोतरी की गई है। प्रतिशत के लिहाज से देखा जाए तो दिहाड़ी में वेतन वृद्धि दो से दस प्रतिशत तक रही है। ये नई दरें एक अप्रैल से लागू की गई हैं। अधिसूचना में केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्रालय ने वित्तीय वर्ष 2023-24 के लिए ग्रामीण रोजगार गारंटी कार्यक्रम में संशोधन की घोषणा की।
दिहाड़ी संशोधन महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना 2005 की धारा 6 (1) के तहत किया गया है। केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्रालय की ओर से जारी नोटिफिकेशन में मजदूरी दर में 7 से लेकर 26 रुपए तक की वृद्धि की गई है। यह संशोधित मजदूरी दर 1 अप्रैल 2023 से लागू हुई है। इनमें राजस्थान में मनरेगा के मजदूरी दर में सबसे अधिक वृद्धि दर्ज की गई है। राजस्थान के लिए संशोधित मजदूरी 255 रुपए प्रति दिन है, जो पहले 2022-23 में 231 रुपए थी। वहीं बिहार और झारखंड राज्य में पिछले साल की तुलना में लगभग 8 फीसदी की वृद्धि दर्ज की गई है।
पिछले साल इन दोनों राज्यों में मनरेगा मजदूर के लिए एक दिन की मजदूरी 210 रुपए थी। अब इसे बढ़ाकर 228 रुपए कर दिया गया है।छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश के लिए, जहां सबसे कम दैनिक मजदूरी 221 रुपए है, पिछले वर्ष की तुलना में 17 रुपए बढ़ोतरी दर्ज की गई है। वित्त वर्ष 2022-23 में दोनों राज्यों में दैनिक मजदूरी 204 रुपए तय थी। हरियाणा में मनरेगा के तहत सबसे अधिक मजदूरी 357 रुपए प्रति दिन किए गए हैं, सबसे कम प्रतिशत वृद्धि दर्ज करने वाले राज्यों में कर्नाटक, गोवा, मेघालय और मणिपुर शामिल हैं।
राज्यों में अलग-अलग है दैनिक मजदूरी
पिछले साल भारतीय रिजर्व बैंक की एक रिपोर्ट में बताया गया था कि ग्रामीण मजदूरों की दैनिक मजदूरी में अलग-अलग राज्यों में काफी असमानता है। देश में महंगाई दर के लगातार ऊंची रहने के बावजूद कई राज्यों में मजदूरों को दिन के काम के बदले दो सौ रुपये के करीब दिए जाते हैं। अब महंगाई, ग्रामीण बेरोजगारी ज्यादा होना जैसे कारण है जो दिहाड़ी में असमानता के मूल में हो सकते हैं।
भारत में 1923 से मद्रास में हुई शुरुआत
अब बात करते हैं भारत की। यहां लेबर किसान पार्टी ऑफ हिन्दुस्तान ने 1 मई 1923 को मद्रास में इसकी शुरुआत की थी। उस समय इस को मद्रास दिवस के तौर पर मनाया जाता था। भारत समेत लगभग 80 देशों में यह दिवस पहली मई को मनाया जाता है। इस दिन अस्सी देशों में छुट्टी रहती है। यूरोप में यह दिन ऐतिहासिक रूप से ग्रामीण पगन त्योहारों से जुड़ा है।
आजादी के बाद बड़े बदलाव का इंतजार
आजादी से लेकर देश में मजदूर वर्ग की दशा में बदलाव तो आया है लेकिन स्थिति बहुत अधिक सुधरी हुई नहीं कही जा सकती है। कई बार सामने आता है कि उनको न तो मालिकों द्वारा किए गए कार्य की पूरी मजदूरी दी जाती है और ना ही अन्य वांछित सुविधाएं उपलब्ध करवाई जाती है। गांव में खेती के प्रति लोगों का रुझान कम हो रहा है। इस कारण बड़ी संख्या में लोग मजदूरी करने के लिए शहरों की तरफ पलायन कर जाते हैं। बड़ी संख्या में हो रहे पलायन को रोकने के लिए प्रयास तो हो रहे हैं लेकिन मनमाफिक परिणाम नहीं मिल पा रहे हैं। ना उनके रहने की कोई सही व्यवस्था होती है ही उनको कोई ढंग का काम मिल पाता है। मगर आर्थिक कमजोरी के चलते शहरों में रहने वाले मजदूर वर्ग जैसे-तैसे कर वहां अपना गुजर-बसर करते हैं।