जयपुर: जब हम दुनिया और ज़िंदगी के किसी झमेले में खुद को उलझा पाते हैं या एक बदहाल कर देने वाली थकान हमें अपने वश में करने लगती है या फिर ऐसे कठिन हालात हो जाते हैं कि ये जीवन नीरस लगने लग जाता है तो ऐसे में संगीत ही एक ऐसी चीज है जो हमें इन बंधनों से छुड़ाता है और जीवन के उसी मझदार में फिर पूरी ताकत से खड़ा करने की हिम्मत देता है. संगीत किसी उम्र, व्यक्ति, और वर्ण का मोहताज नहीं, यह सीमाओं से भी परे है. संगीत के इसी जादू को देखते हुए अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर एक पूरा दिन संगीत को समर्पित किया गया है जिसे विश्व संगीत दिवस के रुप में मनाया जाता है.
विश्व संगीत दिवस हर साल 21 जून को मनाया जाता है. संगीत के क्षेत्र में राजस्थान के योगदान को हमेशा याद किया जाता है जहां इस माटी ने संगीत को ऐसे कलाकार दिए जिनकी आवाज ने सभी सीमाओं को तोड़कर एक मानव जाति को एक धागे में पिरो दिया. आइए इस खुश दिन जानते हैं राजस्थान के उन कलाकारों के बारे में जिन्होंने इस माटी में जन्म लेकर दुनिया भर में नाम कमाया.
गजल की दुनिया के सरताज थे मेहदी हसन
राजस्थान के झुंझुनूं के लूणा गांव में 18 जुलाई 1927 को जन्मे मेहदी हसन एक संगीतकारों के परिवार से ताल्लुक रखते थे जिनकी 15 पीढ़ियां संगीत से जुड़ी हुई थी. मेहदी को संगीत की शुरूआती शिक्षा उनके पिता उस्ताद अजीम खान और चाचा उस्ताद इस्माइल खान से मिली जो घ्रुपद के अच्छे जानकार माने जाते थे.
वहीं 1947 में बंटवारे के बाद मेहदी का परिवार पाकिस्तान जा बसा जिसके बाद वहां उन्होंने एक साइकिल दुकान में काम किया और बाद में मोटर मैकेनिक काम भी सीखा लेकिन उनके अंदर से संगीत कभी खत्म नहीं हुआ और वह अपने जुनून के बलबूते आगे चलकर एक महान गजल गायक बने और देश ही नहीं दुनिया भर में अपना जलवा कायम किया.
मांड-ठुमरी की कलाकार अल्लाह जिलाई बाई
वहीं राजस्थानी की मांड गायिका के रूप में पहचान बनाने वाली अल्लाह जिलाई बाई का जन्म 1 फरवरी 1902 को बीकानेर में हुआ जहां महाराजा गंगा सिंह के दरबार में उन्हें हुसैनबक्श लंगड़े ने गायिकी की ट्रेनिंग दी और महज 13 साल की उम्र में जिलाई बाई को राजगायिका की पदवी मिली. वह मांड के साथ-साथ ठुमरी, ख्याल और दादरा की भी उम्दा कलाकार थी.
बता दें कि केसरिया बालम आवो नी पधारो म्हारे देश इन्हीं का ही लोकप्रिय गीत है जिसे आज भी अलग-अलग रूपों में गाया जाता है. जिलाई बाई का निधन 1992 में हुआ जिसके बाद सरकार ने इन्हें 1982 में पद्म श्री से नवाजा और 2012 में जिलाई बाई को प्रथम राजस्थान रत्न सम्मान भी दिया गया.
दो देशों को जोड़ती रेशमा की आवाज
रेशमा का जन्म चूरू जिले के रतनगढ़ के लोहा गांव में 1947 में एक बंजारों के परिवार में हुआ लेकिन विभाजन के बाद उनका परिवार पाकिस्तान के लाहौर जा बसा जिसके बाद रेशमा ने अपने गायिकी सफर की शुरूआत रेडियो पाकिस्तान से की जहां उनका गाया गाना मशहूर हो गया. रेशमा की जानी-मानी पेशकश में ‘दमादम मस्त कलंदर’ और ‘लम्बी जुदाई’ रहे जिसको हर किसी ने पसंद किया. रेशमा का निधन 3 नवम्बर 2013 को पाकिस्तान के लाहौर में हुआ.
कमायचे के उस्ताद थे दप्पू खान
जैसलमेर के सोनार किले के सामने सालों से एक बुजुर्ग दप्पू खान कमायचा बजाते हुए लोकगीत गाता था जिनकी आवाज में वो जादू था जिसे वहां से गुजरता हुआ हर कोई रूक कर सुनता था. खान विदेश से आने वाले पर्यटकों को अपनी कला की जानकारी भी देते थे. अपने जीवनकाल में दप्पू खान ने राग पहाड़ी, राणा और मल्हार में कई गीत गाए और अपनी संगीत परंपरा को आगे बढ़ाने के लिए आखिरी सांस तक लगे रगे. दप्पू खान का निधन 13 मार्च 2021 को हुआ.