Rajasthan Election 2023: मानव का जन्म और मृत्यु इस सृष्टि का शाश्वत सत्य है। जन्म के अवसर पर खुशी एवं मृत्यु पर गमी का माहौल भी हमारी परम्परा है। मृत्यु पर अंतिम संस्कार के कई रूप हैं। शव के अंतिम संस्कार के अंत में श्मशान स्थल पर उपस्थित लोग चिता में कण्डे का एक टुकड़ा जलती चिता में डालकर दिवंगत को अंतिम प्रणाम करते हैं। मारवाड़ी भाषा में इसे ‘थेपड़ी’ कहा जाता है।
आप सोच रहे होंगे कि चुनावी किस्सों के बीच ऐसा क्यों लिखा जा रहा है। जब आप पूरी कहानी की तह में जाएंगे तो ‘थेपड़ी’ का रहस्य खुल जाएगा। तो इस थेपड़ी के नायक थे नाथूराम मिर्धा- नागौर जिले के कुचेरा गांव में सामान्य कृषक परिवार में 20 अक्टूबर 1921 को जन्म हुआ। वकालत की अपेक्षा उन्होंने किसानों की समस्याओं से जूझने के लिए सार्वजनिक एवं राजनीतिक जीवन को मिशन बनाया। देशज भाषा में खरी-खरी बात कहने वाले इस नेता को सुनने के लिए देर रात तक चुनाव सभाओं में प्रतीक्षा रहती। जोधपुर के घंटाघर मैदान में रात्रि दो बजे उनकी सभा के कवरेज का अवसर मुझे मिला था।
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मीरा की धरती मेड़ता
(पश्चिम) विधानसभा निर्वाचन क्षेत्र से वर्ष 1952 में अपना चुनावी सफर आरम्भ करने वाले नाथूराम मिर्धा ने 1996 में दिल्ली से आखरी चुनाव लड़ा। स्वाधीनती संग्राम के सेनानी मिर्धा ने तत्कालीन जोधपुर रियासत के किसानों को संगठित किया। रियासत में स्वतंत्रता से पूर्व जयनारायण व्यास की अगुवाई में गठित लोकप्रिय सरकार में नाथूराम मिर्धा को भी मंत्री मनोनीत किया गया। विधानसभा का पहला चुनाव जीतने के बाद मिर्धा को तत्कालीन मुख्यमंत्री राज्याराम पालीवाल, जयनारायण व्यास एवं मोहन लाल सुखाड़िया मंत्रिमंडल में जगह मिली। मिर्धा के जीवन में ‘पहली बार’ का टोटका भी महत्वपूर्ण रहा है।
वर्ष 1911 में प्रथम बार लोकसभा में दस्तक देने पहुंचे नाथूराम मिर्धा को राष्ट्रीय कृषि आयोग का अध्यक्ष बनाया गया।। आयोग ने समूचे देश के लिए खेती किसानी, पशुपालन, मानव संसाधन सहित कृषि से जुड़े महत्वपूर्णविषयों का सर्वेक्षण किया और नीति निर्धारण के उद्देश्य से लगभग बीस खण्डों में रिपोर्ट तैयार की। फसल चक्र के संदर्भ में इस रिपोर्ट को भविष्य के लिए अत्यंत
महत्वपूर्ण माना गया। नाथूराम मिर्धा 1952 में मेड़ता पश्चिम से, 1957 में नागौर से और 1962 में पुन: मेड़ता से विधानसभा के लिए निर्वाचित हुए। लेकिन 1967 में पराजित हुए। इसी साल उन्हें प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष बनाया गया। वर्ष 1985 में वह पुन: आठवीं विधानसभा के सदस्य बने लेकिन 1989 में लोकसभा चुनाव लड़ने के लिए त्यागपत्र दिया।
छह बार चुने गए थे लोकसभा के लिए
वर्ष 1977 में लोकसभा की पहली पारी खेलने वाले नाथूराम मिर्धा छह बार चुने गए लेकिन इसे चुनावी छक्का नहीं कहा जा सकता। वह 1971-1977 तथा 1980 में फिर 1989-1991 एवं 1996 में दो बार तिकड़ी चुनावी जीत के हीरो बने। आपातकाल के पश्चात 1977 के चुनाव में जनता लहर की आंधी में उत्तर भारत में कांग्रेस पार्टी का सफाया हुआ लेकिन राजस्थान में के वल नाथूराम मिर्धा नागौर की सीट बचाने में सफल रहे। वर्ष 1984 में अपने परिवार के रामनिवास निर्घा से पराजित होकर 1989 में उन्हें हराकर हिसाब बराबर किया। तब वह जनता दल के प्रत्याशी थे। वर्ष 1991 में दसवीं लोकसभा चुनाव में 58.41 प्रतिशत वोट लेकर मिर्धा ने भाजपा के सुशीलकु मार को हराया।
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भाजपा प्रत्याशी को के वल परबतसर विधानसभा क्षेत्र में लीड मिली। शेष पांच लोकसभा चुनावों में उन्हें सभी आठों विधानसभा क्षेत्रों में बढ़त मिली। वर्ष 1996 में ग्यारहवीं लोकसभा के चुनाव में बीमार नाथूराम मिर्धा ने नामांकन पत्र भरा लेकिन चुनाव प्रचार में नहीं जा सके । बस उनकी एक अपील ने कमाल कर दिया। मतदाताओ से उनका कहना था ं कि वे मेरी जिदं गी के अंतिम चुनाव में ‘थेपड़ी’ के रूप में वोट डालें।
कुल मतदान के 51.33 प्रतिशत मतदाताओं ने मिर्धा की झोली वोटों से भर दी। महाभारत काल में धनुर्विद्या सिखाने वाले गुरु द्रोणाचार्य को जा अहिछत्रपुर इलाके की भूमिदान में दी गई वही क्षेत्र वर्तमान नागौर का हिस्सा माना जाता है। ऐसा लगा कि इतिहास की पुनरावृति हो गई। चुनाव के कु छ माह बाद मिर्धा का निधन हो गया। उपचुनाव में उनके पुत्र भानुप्रकाश मिर्धा (भाजपा) भी सहानुभूति लहर में जीत गए।
गुलाब बत्रा, वरिष्ठ पत्रकार