Rajasthan Election 2023: जयपुर। राजस्थान में चुनावी तस्वीर अब साफ होने के करीब है। लंबे मंथन और मंत्रणा के बाद भाजपा अब तक चार सूचियों में राज्य की 200 विधानसभा सीटों में से 182 सीटों पर अपने प्रत्याशी घोषित कर चुकी है, वहीं कांग्रेस भी सीटों पर अपने प्रत्याशी चुनाव मैदान में उतार चुकी है। सूची से साफ है कि दोनों पार्टियों की निगाहें अर्जुन की आंख की तरह जीत पर टिकी हैं। जीत की लालसा में भाजपा ने तो एक दिन पहले पार्टी में आए लोगों को न केवल गले लगाया है बल्कि टिकट से भी नवाजा है। कांग्रेस और भाजपा के अधिकतर प्रत्याशियों की घोषणा से दोनों पार्टियों के सियासी व सामाजिक समीकरण साधने की रणनीति भी सामने आ रही है। ओबीसी वोटों को साधना दोनों पार्टियों की रणनीति का अहम हिस्सा है, लेकिन जीत में अनुसूचित जातियों की भी बड़ी भूमिका रहने वाली है।
राजस्थान में ओबीसी वोटों की राजनीतिक ताकत मुख्यतः चार पांच जातियों के हाथों में केंद्रित हैं क्योंकि वे अन्य से अधिक संगठित, सबल और एकजुट हैं और एक अंचल विशेष में अपना प्रभुत्व रखती हैं, जहां उस जाति विशेष के प्रत्याशी को छोड़कर अन्य किसी जाति के प्रत्याशी की जीत का चमत्कार उस विधानसभा क्षेत्र के तात्कालिक समीकरणों की वजह से होते रहे हैं, लेकिन ओबीसी को धुरी बनाकर चुनाव लड़ रही कांग्रेस और भाजपा के सामने अनुसूचित जातियों के वोट हासिल करना बहुत अहम चुनौती होगी, क्योंकि अब इनके वोटों पर किसी ओर की भी नजर टिकी हुई है। कभी अनुसूचित जाति के वोट कांग्रेस के पारम्परिक वोट थे, लेकिन बहुजन समाज पार्टी के अभ्युदय के बाद ये कांग्रेस से छिटकने लगे और अब इन पर चंद्रशेखर आजाद रावण की पार्टी की भी नजर है।
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नेताओं ने गिराई बसपा की साख
बसपा ने उतार चढ़ाव के बीच पिछले कु छ चुनावों में राजस्थान में कई सीटों पर चुनावी सफलता दर्ज की, लेकिन पार्टी के विजयी प्रत्याशी जीत के बाद अपनी पार्टी के साथ निष्ठावान नहीं रह सके और सत्ता के समीकरणों पर उनकी पार्टी के प्रति निष्ठा का रंग बदल गया। लोग बसपा के बढ़ते प्रभाव व जनाधार पर उसके विजयी प्रत्याशियों के पालाबदल को लेकर सवाल उठाते रहते हैं, इसलिए इस बार चुनावों में मतदाता इसके ऊपर कहां और कितना भरोसा करेगा, अभी यह कहना जल्दबाजी होगी। बसपा ने 1993 में राजस्थान के चुनावी रण में दस्तक दी थी। 2008 में पार्टी ने करीब 7 फीसदी वोट हासिल किए व उसके छह उम्मीदवार विधानसभा पहुंचे, लेकिन बाद में वे कांग्रेस में चले गए। इससे पार्टी का 2013 में वोट प्रतिशत घटकर इसका आधा रह गया था।
2018 में पार्टी ने एक बार फिर छह सीटों पर जीत दर्ज की, लेकिन जीते हुए प्रत्याशी फिर कांग्रेस की धारा में विलीन हो गए। साफ है बसपा एक विश्वसनीय विपक्षी दल की छवि नहीं बना सकी है। अतः बसपा के लिए अपने कोर वोटर को पार्टी से जोड़े रखना भी एक चुनौती होगी। बसपा अभी तक 84 सीटों पर अपने प्रत्याशी घोषित कर चुकी है और अनुसूचित वोटरों के लिए नया चुनावी चेहरा बनकर उभर रहे चंद्रशेखर रावण की पार्टी भी 17 सीटों पर अपने प्रत्याशी घोषित कर चुकी है।
रावण-बेनीवाल की जुगलबंदी से पड़ेगा प्रभाव
चंद्रशेखर की पार्टी, हनुमान बेनीवाल की आरएलपी के साथ चुनाव मैदान में उतर रही है। यह एक तरह का रणनीतिक गठबंधन है। हनुमान बेनीवाल का कोर वोटर जाट मतदाताओं का एक हिस्सा माना जाता है। ऐसे में क्या राजस्थान में जाट व अनुसचित जाति के मतों का ध्रुवीकरण एक प्रबल गठबंधन का रास्ता खोल देगा? फिलहाल इसके आसार कम हैं, क्योंकि दोनों ही अपने अपने समाज के सर्वमान्य और शिखर नेता होने की आकांक्षा को पूरा नहीं करते हैं, लेकिन चुनावी दौड़ के बीच स्थानीय समीकरण सधने पर वे कहीं भी वोटों का रुख मोड़ सकते हैं। बेनीवाल व चंद्रशेखर की जुगलबंदी पश्चिम राजस्थान के सामाजिक समीकरण प्रभावित कर सकती हैं क्योंकि बेनीवाल का प्रभाव क्षेत्र उस ओर ही है।
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राजस्थान विधानसभा की 200 सीटों में से 59 सीटें सुरक्षित हैं, जिनमें से अनुसूचित जाति के लिए 34 और अनुसूचित जनजाति के लिए कु ल 25 सीटें आरक्षित हैं। अनुसूचित जाति की राज्य में करीब 17-18 प्रतिशत आबादी है। 2013 में भाजपा की सत्ता में वापसी हो या 2018 में कांग्रेस का फिर सत्ता में लौटना अनुसचित जाति की सीटें और वोट अहम रही हैं। इसलिए इस बार ये वोट किस करवट बैठेंगे, यह बहुत अहम है। खासकर ओबीसी केंद्रित वे सीटें जहां कांग्रेस व भाजपा दोनों के प्रत्याशी एक ही जाति से हैं, वहां इनके मतों की भूमिका निर्णायक हो सकती है। इनमें किसी भी प्रकार की टूट व सेंध दोनों पार्टियों के लिए नुकसानदायक हो सकती है।
ग्रामीण अंचल के एक वोटर की यह टिप्पणी बहुत अहम है कि चौधर तो चौधर् यां कै कनै ई रहणी है, पण चौधर आसी नानी जात्यां रै वोटां रै पाण ई(यानी जीत तो प्रभावशाली जातियों की होगी परन्तु कम आबादी जातियों के वोटों से ही जीत हासिल होगी।