इस साल देश आजादी का अमृत महोत्सव ( Azadi ka Amrit Mahotsav ) मना रहा है। सारे देशवासी इस बार 75वां स्वतंत्रता दिवस ( 75th Independence Day ) मनाएंगे। इस दिन हम अपने देश के आजादी के परवानों को याद करते हैं उन्हें श्रद्धांजलि देते हैं। देश की आजादी की लड़ाई में हजारों क्रांतिकारियों ने अपना बलिदान दिया। इनमें कई देशभक्त वीरों की भूमि राजस्थान से थे। उनमें से कुछ ऐसे क्रांतिकारी जिनका नाम इतिहास के पन्नों कहीं गुम हो गय़ा है। हम आपको ऐसे ही आजादी के परवानों से रूबरू कराएंगे ताकि देश के लिए उनके दिए गए सर्वोच्च बलिदान को हम याद रखें।
अजमेर के खरवा की गद्दी पर बैठे राव
राव गोपाल सिंह राठौर का जन्म 19 अक्टूबर 1873 को अजमेर के खरवा ठिकाने में हुआ था। इनके पिता राव माधोसिंह खरवा के शासक थे। इनकी मां मेवाड़ के राव भवानीसिंह चुण्डावत की बेटी थीं। मात्र 12 साल की उम्र में ही रावगोपाल ने घुड़सवारी और निशानेबाजी में निपुण हो गए थे। जनता के लिए प्रेम, अपनी माटी के लिए भक्तिभावना से वे ओत-प्रोत थे। साल 1955 में उनके पिता माधोसिंह का निधन हो गया. जिसके बाद गोपाल सिंह खरवा की गद्दी पर बैठे।
राजस्थान में अकाल के समय जनता को बचाने के लिए गिरवी रखीं जागीरें
बात 1956 की है, जब राजस्थान में भयंकर अकाल पड़ा था। चारों तरफ इंसान, जानवर भूख-प्यास से तड़प रहे थे और मर रहे थे। अपनी राज्य की जनता को भूख-प्यास से तड़प कर मरते देख राव गोपाल सिंह की मन झकझोर गया। उन्होंने जनता को बचाने के लिए अपने राज्य का सारा खजाना जनता का पेट भरने के लिए खोल दिया। भोजन की व्यवस्था के लिए उन्होंने जगह-जगह भोजनालय खोल दिए। यहां पर लोगों को खिचड़ी बनाकर खिलाई जाती थी। लेकिन राव इतने बड़ी रियासत के मालिक नहीं थे। जिसके खजाने से भूखी जनता का पेट भरा जा सके। इसलिए राव ने अपनी जागीर के कई गांव अजमेर और व्यावर के सेठों को गिरवी रख दिए, जिसेक बाद उन्हें कर्ज मिल सका, इन पैसों से उन्हें अपने प्राणों से भी प्यारी जनता का पेट रखना जारी रखा। राव की इस उदारता और दयालुता का चारों तरफ बखान हुआ, भूख से मर रही जनता का पेट भरने वाला ये राव उनकी आंखों का तारा बन गया। इससे राव की लोकप्रियता पहले से कई गुना बढ़ गई।
साल 1915 में राव गोपाल सिंह को टोडगढ़ के पहाड़ी इलाके में नजरबंद कर लिया गया। इस दौरान अंग्रेज सरकार उन्हें निहत्था कर राव को जान से मार देना चाहती थी। राव ने इस स्थिति को पहले ही भांप लिया था। इसके साथ उन्हें यह भी जानकारी मिल गई थी। उन्हें नजरबंद कर अंग्रेज सरकार के अधिकारी उनके राज्य के लोगोॆ को गंभीर यातनाएं दे रही है, उनपर जुल्म ढा रही है। स्वाभिमान से ओतप्रोत और अपनी जनता के रखवाली करने के खातिर ने 9 जुलाई 1915 को टोडगढ़ के नदरबंदी तोड़कर भागने में कामयाब रहे। यहां से निकलने के बाद उन्होंने अंग्रेज विरोधी नीतियों को धार देना शुुरु किया। राव की इन गतिविधियों से अंग्रेजों के माथे पर चिंता की लकीरेें दिखने लगी थीं। वे अब राव को अपने काबू में करने की कोशिश करने लगे थे।
मुस्लिमों के अलग राज्य की मांग पर गए कश्मीर
साल 1931 में शेख अब्दुल्ला ने कश्मीर में राज करने का सपना देकना शुरु कर दिया था, जिसके लिए उसने कश्मीर के बहुसंख्यक मुसलमानों को भड़काना शुरु कर दिया था। मुसलमानों ने भी अब अपने लिए अलग राज्य-देश की मांग उठानी शुरु कर दी थी। ये खबर राव गोपाल सिंह को लगी तो वे मुसलमानों के इस विरोध को रोकने के लिए कश्मीर निकल गए। लेकिन पंजाब के गवर्नर ने उनके कश्मीरजाने पर पाबंदी लगा दी। जिसेक बाद उन्हें खबर मिली की मुसलमानों के इस विरोध को रोक लिया गया है। जिसके बाद पंजाब में गोपाल सिंह का हिंदू और सिख समुदाय ने स्वागत सम्मान किया। राव को हिंदू हितकारिणी सभा का सभापति बनाया गया। इसी सभा में राव को राजस्थान केसरी की उपाधि से भी नवाजा गया। जनता की सेवा करते-करते वे गंभीर बीमारियों में जकड़ गए थे। आखिर में 12 मार्च 1939 को अजमेर में इनका निधन हो गया।