Bullock Cart History: हम में से कई लोगों ने बैलगाड़ी की सवारी तो की होगी, कुछ लोगों ने इसे चलाया भी होगा। आधुनिकिता की दौड़ में भले ही इसे कुचल दिया गया हो, लेकिन पुराने जमाने में यह कितना महत्वपूर्ण साधन थी, उस समय के किसानों से अधिक शायद कोई नहीं जानता होगा। उस समय जिस भी किसान के पास बैलगाड़ी होती थी उसे अमीर व्यक्ति का दर्जा दिया जाता था। धीरे-धीरे यह गांव के लगभग प्रत्येक घर का मुख्य साधन बन गई थी।
आस-पास के क्षेत्रों में जाना, शादी-ब्याह में जाना, खेतों में हल चलाना इन सभी कार्यों के लिए बैलगाड़ी का उपयोग किया जाता था। लेकिन जिस तरह 25 पैसे, 50 पैसों का दौर चला गया, ठीक उसी तरह बैलगाड़ी भी लुप्त होती चली गई। अब अगर कभी सड़कों पर गाहे बगाहे बैलगाड़ी दिख भी जाती है, तो लोग बड़ी ही उत्सुकता के साथ इसे निहारनें लगते हैं।
सामान ढ़ोने का साधन
बैलगाड़ी को कई नामों से जाना जाता है। जैसे- शकट, छकड़ा, रहड़ा तथा गंत्रिका। अंग्रेजी में इसे बुलॉक कार्ट कहा जाता है। करीब तीन दशक पहले तक बैलगाड़ी का उपयोग सामान ढ़ोने के लिए किया जाता था। हालांकि इसका मुख्य उपयोग खेती के लिए किया जाता था। खेत पर हल चलाना, बीज बौना, सिंचाई करना जैसे सभी कार्य किसान बैलों द्वारा खींची जाने वाली इसी गाड़ी से करते थे।
4400 ईसा पूर्व में शुरू हुआ बैलगाड़ी का सफर लगभग वर्ष 2000 के बाद थम सा गया। इसलिए इसे विश्व के सबसे पुराने यातायात के साधन के रूप में जाना जाता है। उस समय इसका उपयोग ग्रामीण क्षेत्रों में किया जाने लगा था, उसके बाद धीरे-धीरे लोग शहरों में भी इसका इस्तेमाल करने लगे। तीसरी कसम, आशीर्वाद, दो बीघा जमीन, देवदास तथा गीत गाता चल जैसी फिल्मों में भी बैलगाड़ी को दिखाया गया है।
काफी सरल थी इसकी डिजाइन
बैलगाड़ी बनाना किसी भी बढ़ई के लिए बेहद आसान था। इसे दो बैलों के द्वारा खींचा जाता था। इसमें आगे की तरफ दो बैल और पीछे की तरफ दो लकड़ी के पहिए लगे होते हैं, जिसपर लोहे की रिम लगी होती है। इन्हीं पहियों के ऊपर लकड़ी का तख्तनुमा आसन बना होता है। लोहे की रिम पर एक रस्सी जोड़ी जाती है, जिसे बैलगाड़ी चालक अपने पास रखता है। इसी के जरिए बैलगाड़ी चलाई जाती थी। इसी पर बैठकर लोग एक जगह से दूसरे स्थान पर जाने के लिए सफर तय करते थे। इस पर पशुओं का चारा, कृषि से संबधिंत सामान ढोने का काम भी किया जाता था।
बैलगाड़ी पर किया था सबसे बड़ा सफर
बैलगाड़ी के बारे में यह जानकर हैरानी होगी डॉ. विक्रम साराभाई ने अपने जीवन का सबसे मुख्य सफर इसी से किया था। आंखों में आसमान मुठ्ठी में करने का सपना लिए विक्रम साराभाई ने 15 अगस्त 1969 को इसरो की स्थापना की थी। उनके मिशन का दूसरा रॉकेट वजन में बहुत भारी था। इसलिए वे इसे बैलगाड़ी पर रखकर प्रक्षेपण स्थल पर लेकर गए थे।