Rajasthan Assembly Election 2023 : राजस्थान विधानसभा चुनाव की तैयारी अभी शुरू नहीं हुई है, लेकिन राजनीतिक पार्टियां का सत्ता की कुर्सी की चाहत में चुनावी जमीन को खाद पानी देने का काम शुरू हो गया है। राजस्थान में अगले साल सरकार किसकी बनेगी ये तो अभी नहीं कहा जा सकता लेकिन जिस तरह से प्रदेश मे कांग्रेस और भाजपा की हर पांच साल में सरकार बदलती रही है। उससे चुनाव होने से पहले ही नतीजों का धुआं उड़ने लगा है। लेकिन इस धुंध को साफ करते हुए इसकी साफ तस्वीर देखनी होगी, इसके लिए हमें थोड़ा इतिहास में जाना पड़ेगा।
देश के आजाद होने के बाद पूरे देश में कांग्रेस का एकछत्र राज रहा। जाहिर है राजस्थान भी इससे अछूता नहीं रहा। यहां भी कई सालों तक कांग्रेस की सरकार रही थी। आपको बता दें कि जिस साल हमारे देश में अपना गणतंत्र लागू हुआ उसी साल पहली बार यहां पर लोकतांत्रिक तरीके से चुनाव हुए। इन चुनावों में कांग्रेस की ही जीत हुई और सीएस वेंकटाचारी ने प्रदेश के पहले मुख्यमंत्री के रूप में इतिहास में अपना नाम दर्ज कराया। तब से लेकर प्रदेश में कांग्रेस की ही सरकार बनती थी। लेकिन साल 1975 में इंदिरा गांधी के देश में आपातकाल लगाने के बाद लोगों में कांग्रेस के खिलाफ जबरदस्त आक्रोश फैल गया था। साल 1977 में जब लोकसभा चुनाव कराए गए तो लोगों ने आपातकाल का गुस्सा चुनावी प्रक्रिया में दिखाया और अपने जनाधार से कांग्रेस को सत्ता से बेदखल कर दिया। लोकनायक जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में बनी जनता पार्टी ने केंद्र में ही नहीं प्रदेश में अपनी सरकार बनाई और भैरों सिंह शेखावत प्रदेश के मुख्यमंत्री बने।
1990 के चुनाव में भाजपा ने पहली बार लहराया भगवा परचम
इसके बाद साल 1980 में जब राजस्थान विधानसभा चुनाव हुए तब कांग्रेस ने फिर से सत्ता में वापसी कर ली। और जनता पार्टी की सरकार को सत्ता से बेदखल कर दिया। यह क्रम 1990 तक चालू रहा यानी कि 1990 तक प्रदेश में सिर्फ कांग्रेस की ही सरकार रही। 1990 के चुनावों में फिर से सरकार बदली और भाजपा के नेतृत्व में प्रदेश में सरकार बनी। इस चुनाव में फिर से एक बार फिर भाजपा से भैरों सिंह शेखावत ने मुख्यमंत्री पद की शपथ ली। 1990 का राजस्थान का यह विधानसभा चुनाव इतिहास में दर्ज हो गया। इसका कारण था कि चुनाव में बने इतिहास में आज तक दोहराए गए, क्योंकि 1990 के विधानसभा चुनावों में सबसे ज्यादा वोट शेयर प्राप्त करने वाली पार्टी तीसरे नंबर की पार्टी बनी और कम वोट शेयर प्राप्त करने की प्राप्त करने वाली पार्टी ने प्रदेश में अपनी सरकार बनाई।
आंकड़ों की बात करें तो 50 सीटों के साथ कांग्रेस पार्टी को सबसे ज्यादा वोट प्रतिशत मिला था जो 33.64 था इसके बावजूद वह प्रदेश की तीसरी पार्टी बनी। भाजपा की अगर बात करें तो 25% के वोट शेयर के साथ भाजपा ने प्रदेश में अपनी सरकार बनाई, कम वोट शेयर के बावजूद भाजपा के खाते में 85 सीटें थी। साल 1977 में पहली बार कांग्रेस को सत्ता से उखाड़ देने वाली जनता पार्टी सिर्फ 21% वोट शेयर के साथ 55 सीटें लेकर आई थी इस हिसाब से वह प्रदेश की दूसरे नंबर की पार्टी बनी थी। बता दें कि तब भाजपा ने राजस्थान विधानसभा की 200 में से 128 सीटों पर चुनाव लड़ा था जबकि कांग्रेस ने पूरी 200 सीटों पर अपने प्रत्याशी उतारे थे तो वही जनता दल ने 120 सीटों पर अपने उम्मीदवारों को खड़ा किया था। 1990 के बाद साल 1993 में हुए चुनाव में एक बार फिर से लगातार भाजपा दूसरी बार सत्ता में आई थी इस बार उसने पिछली बार से ज्यादा 10 सीटें अपने खाते में जोड़ी और 95 सीटों के साथ राजस्थान में अपनी सरकार बनाई।
सिर्फ भैरो सिंह शेखावत ने ही सरकार कराई है रिपीट
इसके बाद प्रदेश में हर 5 साल में सत्ता बदलती रही एक बार भाजपा तो एक बार कांग्रेस। 1993 से 1998 तक भैरो सिंह शेखावत के नेतृत्व में भाजपा की सरकार रही, इसके बाद 1998 में विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने फिर से सत्ता में जबरदस्त तरीके से वापसी की और इस बार प्रदेश की कमान अशोक गहलोत ने अपने हाथों में थामी और 5 साल सरकार का निर्वहन किया। इसके बाद 2003 में जब विधानसभा चुनाव हुए तो फिर से भाजपा ने सत्ता में वापसी की और वसुंधरा राजे भाजपा की मुख्यमंत्री बनी। 2008 में जब चुनाव हुए तब फिर से कांग्रेस की सरकार बनी और फिर से अशोक गहलोत प्रदेश के मुख्यमंत्री बने। 2008 से 2013 तक कांग्रेस की सरकार रही 2013 में फिर से सत्ता परिवर्तन हुआ और बीजेपी सत्ता में आई और वसुंधरा राज्य की मुख्यमंत्री बनी। साल 2018 में वसुंधरा राजे के चेहरे पर ही चुनाव लड़ा गया और उस समय मोदी लहर भी थी फिर भी भाजपा की करारी हार हुई और 200 में से मात्र 73 सीटें लेकर भाजपा दूसरे नंबर की पार्टी बनी और कांग्रेस ने जबरदस्त तरीके से जीत हासिल कर ली और अशोक गहलोत के हाथों में फिर से सत्ता की कमान सौंपी गई।
अब तक 14 बार चुनाव..10 में कांग्रेस तो 4 बार जीती भाजपा
आपको बता दें कि साल 1952 से लेकर के अब तक प्रदेश में 14 बार चुनाव हो चुके हैं जिसमें 10 बार कांग्रेस ने तो 4 बार भाजपा ने जीत दर्ज की है। इसमें से अभी तक सिर्फ भाजपा के भैरो सिंह शेखावत ऐसे शख्स रहे हैं जिन्होंने लगातार प्रदेश में दो बार अपनी सरकार रिपीट कर आई है इसके अलावा अभी तक कोई भी ना तो अशोक गहलोत न ही वसुंधरा राज्य में से इस रिकॉर्ड को तोड़ नहीं पाया है अगर 2023 के चुनाव में अशोक गहलोत के नेतृत्व में कांग्रेस जीतती है तो यह अशोक गहलोत के राजनीतिक करियर में एक बड़ा कीर्तिमान साबित हो सकता है। आने वाले 2023 का विधानसभा चुनाव प्रदेश का 15 बार चुनाव होगा जिसमें कौन जीतेगा यह तो अभी कहा नहीं जा सकता।
चुनावी माहौल की बात करें तो भाजपा के अलावा दूसरी पार्टियों में ‘आप’ और ओवैसी की AIMIM अब चुनावी मैदान में उतरने को तैयार हैं और दोनों पार्टियों ने राजस्थान में तीसरा विकल्प बनने के दावे किए हैं वहीं राजस्थान में पहले से ही कुछ सीटों पर अपना प्रभुत्व रखने वाले दल इस समय क्या रणनीति अपना रहे हैं और वोटर्स को कैसे लुभा रहे हैं। इसके लिए हम देखेंगे कि इस समय राजस्थान की पार्टियां जमीन पर किस तरह काम कर रही हैं इसकी थोड़ी झलकी हम आपको दिखा रहे हैं।
AAP- 2018 के चुनावों में दुर्गति, कैसे बनेगा तीसरा विकल्प
प्रदेश में तीसरा विकल्प बनने का दावा करने वाली अरविंद केजरीवाल की आप दिल्ली, पंजाब, गुजरात की तरह ही राजस्थान में जीत दर्ज करने का दावा कर रही है। सरकार बनने पर दिल्ली, पंजाब में फ्री बिजली-पानी-शिक्षा-स्वास्थ्य का मॉडल उन्होंने राजस्थान में भी लागू करवाने की वादा जनता से किया है। इन वादों से प्रदेश की जनता का भी झुकाव आप की तरफ हो सकता है। लेकिन पिछली बार के चुनावों में पार्टी ने 180 सीटों पर अपने उम्मीदवार खड़े गए थे लेकिन उनमें से एक भी नहीं जीते यहां तक कि कई उम्मीदवारों की तो जमानत भी जब्त हो गई। लेकिन पार्टी के साथ सबसे बड़ी समस्या है कि उसका प्रदेश स्तर पर कोई मजबूत चेहरा नहीं है, और चेहरे के बिना पार्टी इन बड़े-बड़े राजनीतिक दलों के सामने कैसे टिकेगी इसा मंथन भी आप को करना चाहिए। ये बात अलग हो सकती है कि भाजपा की तरह आप भी अपने शीर्ष नेतृत्व के चेहरे पर य़ानी अरविंद केजरीवाल के चेहरे पर ही चुनाव लड़े, लेकिन पंजाब चुनाव में आप की परिपाटी को देखते हुए ऐसा कहना थोड़ा मुश्किल। क्यों कि पंजाब में केजरीवाल ने भगवंत मान जैसे चर्चित चेहरे को उतारा था। जिससे आप बड़ी जीत दर्ज करने में कामयाब हुई थी।
AIMIM – हैदराबाद के अलावा देश में वजूद की अभी भी तलाश
असदुद्दीन ओवैसी की AIMIM भी राजस्थान में खुद की पार्टी को लेकर त्रिकोणीय मुकाबले की दावा कर रही है। ओवैसी ने अपने राजस्थान दौरे के दौरान कहा था कि राजस्थान की जनता कांग्रेस और भाजपा से अब त्रस्त आ चुकी है। इसलिए यहां की जनता तीसरे विकल्प की तलाश में हैं। लेकिन दूसरे राज्यों में अगर AIMIM की स्थिति को देखें तो तेलंगाना के अलावा किसी भी राज्य में यह पार्टी मजबूत स्थिति में नहीं है। यूपी, बिहार में इसका उदाहरण देखा सकता है।
बिहार में साल 2020 के चुनाव में AIMIM के 5 विधायकों ने जीत दर्ज की थी लेकिन उऩमें से भी 4 विधायकों ने पार्टी छोड़कर लालू यादव की RJD में शामिल हो गए थे। जिससे अब बिहार में AIMIM का सिर्फ 1 विधायक रह गया है। यूपी में भी हालात कुछ ऐसे ही हैं। साल 2022 के चुनाव में AIMIM को नोटा से भी कम वोट मिले थे। यहां पर 100 सीटों पर चुनाव लड़ने वाली AIMIM को एक भी सीट नहीं मिली थी। तो 200 सीटों वाली राजस्थान विधानसभा में AIMIM किस तरह तीसरा विकल्प बनेगी इसके बारे में पार्टी को ज्यादा विचार करने की जरूरत है।
RLP- प्रदेश में तीसरे मोर्चे का मुख्य स्तंभ
नागौर सांसद और राष्ट्रीय लोकतांत्रिक पार्टी के संयोजक हनुमान बेनीवाल प्रदेश के सियासत में एक मजबेत चेहरा हैं। बेनीवाल पश्चिमी राजस्थान में एक प्रमुख चेहरा हैं। उनका इस क्षेत्र में बेहद प्रभाव भी है। पिछले विधानसभा में RLP को 3 सीटें हासिल हुई थीं। हालांकि उन्होंने 20 सीटें जीतने का दावा किया था। लेकिन इस बात पर भी गौर करना होगा कि पिछले चुनाव की वोटिंग से पहले के 20 दिन तक उन्होंने ताबड़तोड़ रैलियां औऱ जनसभाएं कर जनता को अपनी मुरीद बना लिया था। यहा कारण था कि उन्होंने 8 लाख से भी ज्यादा वोट हासिल किए साथ ही साथ कांग्रेस और भाजपा के वोटबैंक में भी बड़ी सेंधमारी की थी। इससे पता चलता है कि अगर बेनीवाल वैसा ही कारनामा इस चुनाव में भी दिखातें हैं तो प्रदेश की सियासत में तीसरे मोर्चे को और पैनी धार मिल सकती है।
BSP – पार्टी छोड़कर जा चुके लोगों की घरवापसी की कवायद
प्रदेश में तीसरे मोर्चे को धार देने का काम तो मायावती की बसपा ने भी किया है। पिछले चुनाव में बसपा 6 सीटें जीतकर आई थी। लेकिन यह अलग की बात है उसके सभी 6 विधायक कांग्रेस में शामिल हो गए हैं। लेकिन पिछले दिनों हुई मायावती के भतीजे और प्रदेश बसपा प्रमुख आकाश आनंद की बैठक में यह साफहो गया था कि बसपा अब चुनावी माहौल में कुछ बड़ा करने की जुगत में है वह अपने उऩ 12 सदस्यों को वापस लेकर आएगी जो पार्टी छोड़कर चले गए थे। लेकिन आप की तरह की बसपा के साथ सबसे ब़ड़ी समस्या यही है कि उसके पास भी कोई प्रदेश का प्रतिनिधित्व करने वाला चेहरा नहीं है। जो कि एक बड़े स्तर पर सदस्यों का नेतृत्व कर सके और बड़ी जीत दिल सके। अपने नियत वोटों के बल पर ही पार्टी जीतना चाहती है। लेकिन प्रदेश की मौजूदा स्थिति को देखते हुए निश्चित वोटों का गणित नहीं अपनाया जा सकता।
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