Diwali Special : दीपावली का त्यौहार सिर्फ भारत में ही नहीं बल्कि पूरे विश्व में मनाया जाता है। खासकर भारत के बाहर एशिया में इसे मनाने वाले लोगों की तादाद सबसे ज्यादा है। यह एक ऐसा त्यौहार है जो हिंदू के अलावा अन्य धर्म भी मनाते हैं। इस दिन के लिए कई मान्यताएं प्रचलित हैं। जिसमें सबसे बड़ी तो यह कि जब भगवान राम 14 साल के वनवास के बाद अयोध्या वापस लौट कर आए थे। तब अयोध्या वासियों ने अपने राजा श्रीराम का दीये जलाकर भव्य स्वागत किया था। भगवान श्री राम के स्वागत की यह प्रक्रिया इस बात का सूचक है कि लंबी काली रात के बाद उजियारा जब आता है, तब वह धरा किस कदर रोशनी वाली और ऊर्जावान होती है। इसके अलावा यह भी माना जाता है कि इस दिन भगवान महावीर को मोक्ष की प्राप्ति हुई थी तो दूसरी तरफ भगवान बुद्ध के बौद्ध धर्म को सम्राट अशोक ने इसी दिन अपनाया था। यह एक ऐसा त्यौहार है जो कई तरह की समग्रता एकाग्रता को एक जगह लाकर इकट्ठा कर देता है और एक ओर इंगित करता है।
पर्यावरण से दूर करती कई गैर जरूरी इच्छाएं
पिछले कुछ सालों में रोशनी के इस सबसे बड़े पर्व को हमारी कुछ गैर जरूरी इच्छाओं ने बदल कर रख दिया है। इसलिए अब इसके दुष्परिणाम हमें देखने पड़ रहे हैं। प्रकाश का यह पर्व दिवाली अब कृत्रिम बिजली की तरह झालरों में छिप गई है। मिट्टी के दीयों की जगह अब झालरों ने ले ली है। जो कि घरों में भी अनावश्यक तरीके से सजाई जाती है। कुछ देर की यह भव्यता भविष्य के अंधेरे को आमंत्रित करती है। ऐसा हम इसलिए कह रहे हैं क्योंकि जिस तरह से दिवाली में चार-पांच दिनों तक सीमा से कहीं ज्यादा ऊर्जा की खपत की जाती है। वह किसी भी तरह जनता के हित में नहीं है। बल्कि इस त्यौहार के विचार की बिल्कुल विपरीत है।
एक रिपोर्ट के मुताबिक साल 2019 में दिवाली के समय 1.24 लाख मेगावाट और साल 2020 में 1.40 लाख मेगावाट बिजली का उपयोग किया गया था। जोकि पूरे साल में उपयोग की जाने वाली बिजली का उच्चतम प्रतिशत था। अगर हम गौर करें तो देखेंगे कि बिजली का सबसे बड़ा स्रोत हमारे देश में कोयला है और गाहे-बगाहे इस समय देश में कोयला खत्म होने की खबरें भी काफी चर्चित हैं। यूपी, राजस्थान जैसे प्रदेशों में तो कोयला लगभग खत्म होने के कगार पर है। लेकिन फिर भी इन सब बातों से अनजान हम अत्यधिक मात्रा में बिजली का उपयोग कर रहे हैं और दिवाली में तो शायद इसके सारे रिकॉर्ड ही तोड़ देते हैं। इस तरह से हम बिजली का अत्यधिक उपयोग कर कोयले की खपत तो बढ़ा ही रहे हैं बल्कि पर्यावरण को भी खासा नुकसान पहुंचा रहे हैं। इस तरह बिजली की लगातार बढ़ती मांग देश और राज्यों में भी अनावश्यक रूप से एक तरह का बोझ बन रही है।
आतिशबाजी धुएं के आगोश में खो जाएंगे शहरों के शहर…
दिवाली के त्यौहार पर बड़ी मात्रा में आतिशबाजी की जाती है इसके लिए लाखों रुपए खर्च कर दिए जाते हैं। जिससे हम पहले से ही खतरे की तरफ जा रही पर्यावरण प्रदूषण को कई गुना और बढ़ा देते हैं। इसका असर हम देखते हैं कि दिवाली के करीब एक हफ्ते बाद ही पूरा देश धुंध में डूब जाता है। जिसका कारण पराली जलाने को बताया जाता है लेकिन हम जरूरत से ज्यादा की गई इन आतिशबाजी पर ध्यान नहीं देते हैं। इसके फलस्वरूप हमें दिल्ली जैसे इलाके धुंध के आगोश में दिखाई देते हैं तो वहीं इसका असर दूसरे राज्यों पर भी देखने को मिलता है।
दिवाली के पहले दिल्ली जैसे शहर का एक्यूआई यानी कि एयर क्वालिटी इंडेक्स जो 200 से 300 पीपीएम रहता है। वह दीवाली के दौरान और उसके 1 हफ्ते बाद 900 से 1000 पीपीएम तक हो जाता है। जो कि स्वास्थ्य के लिहाज से बेहद घातक है इसे हम आसान शब्दों में ऐसे समझ सकते हैं कि एक व्यक्ति 1 घंटे में लगभग 100 सिगरेट का धुआं ले रहा है। यही कारण है कि देश की राजधानी दिल्ली सहित कई राज्यों में आतिशबाजी को लेकर के सुप्रीम कोर्ट को दखल देना पड़ता है। इसके लिए कई राज्य नियम-कायदे-कानून निकाल देते हैं। लेकिन हम उसे भी ताक पर रखने से बाज नहीं आते। चोरी-छुपे कहीं ना कहीं इस तरह के आतिशबाजी की जाती है व बेची भी जाती है। यह और भी ज्यादा महत्वपूर्ण तब हो जाता है जब कोविड-19 जैसे समस्या से देश के कई लोग जूझ रहे हैं। क्योंकि कोरोना के दौरान और उसके बाद भी कई लोगों में श्वसन संबंधी बीमारी पैदा हो गई हैं। जिसके लिए प्रदूषण रहित वातावरण सबसे ज्यादा जरूरी है।
पर्यावरण से बीमारी वाले बैक्टीरिया को खत्म करते हैं सरसों के तेल के दीये
अगर आज के तुला हम पुराने समय से करें तो देखेंगे कि लगभग 40 से 50 साल पहले लगभग हर परिवार मिट्टी के दीपक से अपनी दिवाली मनाता था। दिवाली जब आती थी तो कुम्हारों के चेहरे पर भी मुस्कान आ जाती थी। यह सोच कर कि अब तो दिवाली बहुत अच्छी मनेगी। क्योंकि उनके बनाए मिट्टी के लिए पूरे देश में बिकेंगे। तब तेल और घी से जगमगाते दिए पर्यावरण को सांस लेने का मौका देते थे। सरसों के तेल और घी के दीपक जलाने का वैज्ञानिक प्रमाण भी सामने आया है जिसमें कहा गया है की इस तरह की दीपक जलाने से पर्यावरण में मौजूद बीमारी फैलाने वाले बैक्टीरिया और कीट समाप्त हो जाते हैं। जिससे पर्यावरण शुद्ध और स्वच्छ हो जाता है। लेकिन इन सब से इतर अब तो हम पर्यावरण को नुकसान पहुंचाने पर ही तुले हुए हैं। मिट्टी के दीयों की जगह जगमगाती रंगीन झालरों ने ले ली है। बिजली की खपत भी धुआंधार हो रही है इसका परिणाम यह होगा कि हमें आने वाले समय में बिजली की कमी के लिए तैयार रहना होगा।
पटाखा निर्माण में कई घरों के बुझे चिराग
तो वही आतिशबाजी ने पर्यावरण को हर किसी के दिमाग से तो निकाल ही दिया है। पटाखों के चलन के बारे में अगर बात करें तो 1940 के बाद यह चलन काफी तेज हुआ। जिसके पीछे व्यापार सबसे बड़ा कारण था। क्योंकि त्यौहार के आने पर जब पटाखे ज्यादा बनने लगे थे। तो इनकी मांग भी उस हिसाब से बढ़ने लगी थी। क्योंकि हर कोई रोशनी के पटाखे चलाकर अपने त्यौहार को मनाना चाहता था। इसलिए इसके बनाने का भी पैमाना बढ़ता चला गया। लेकिन एक आंकड़े के मुताबिक हर साल एक गांव के लगभग 15 से 40 लोग पटाखे बनाने के दौरान अपनी जीवन लीला समाप्त कर लेते हैं। इसी तरह करीब 80 से 350 लोग किसी न किसी गंभीर बीमारी की चपेट में आ जाते हैं। रिपोर्ट में दावा किया गया है कि यह बीमारी पटाखों में प्रयोग होने वाले बारूद और अन्य केमिकल के संपर्क में रहने के कारण होती है। जिससे पता चलता है कि पटाखों की हद से ज्यादा बढ़ती मांग ने ना सिर्फ पर्यावरण को खतरे में डाला है। बल्कि पटाखे बनाने वाले कारीगरों के भी जीवन को सांसत में डाल दिया है।
ग्रीन पटाखे ही नहीं..अब ग्रीन दिवाली की तरफ बढ़ाने होंगे कदम
अगर सभी लोग पर्यावरण के अनुकूल रहकर दिवाली मनाएंगे तो यह सिर्फ पर्यावरण के लिए ही नहीं बल्कि इंसान के जीवन के लिए भी लाभकारी है। इससे पर्यावरण का जीवन तो लंबा होगा ही इंसान के जीवन का भी काल लंबा होगा। उदाहरण के लिए अगर हम दीपावली पर कम बिजली की खपत करेंगे तो हम भविष्य में आने वाली बिजली की कमी से बच पाएंगे और कुम्हारों की जीवन में भी दिवाली की रोशनी ला पाएंगे। क्योंकि जितने कम बिजली की खपत होगी उतनी ही ज्यादा मिट्टी के दीए प्रकाशमान होंगे। पर्यावरण के अनुकूल अब तो बाजारों में ग्रीन पटाखों की भी भरमार है। जिनका प्रयोग हम आतिशबाजी के जगह कर सकते हैं। इससे पर्यावरण को कोई सीधा नुकसान भी नहीं पहुंचेगा और हम पटाखों को चलाने की अपनी मंशा भी पूरी कर सकते हैं। एक तरह से हमें अब ग्रीन दीपावली की तरफ अपना रुख मोड़ना होगा। जिससे पर्यावरण को पहुंचने वाले नुकसान को हम अपने स्तर तक तो कम कर ही सकते हैं। देश के नागरिक होने के नाते यह हमारा दायित्व है कि हम पर्यावरण को प्रदूषित होने से बचाएं और दूसरों को भी इसे अपनाने के लिए सलाह दें। जिससे हम सभी की दिवाली शुभ तथा मंगलकारी हो।
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